Thursday, July 30, 2015

कोई भी तंत्र कितनी सफल या विफल हैं ये इस बात पर निर्भर करती हैं की वहा की न्यायिक वव्यस्था कितनी निष्पक्ष और सुदृढ़ हैं। फिर वो लोकतंत्र हो या कुछ और। न्यायपूर्ण व्यवस्था ही किसी भी तंत्र का विकल्प हो सकती हैं। आप लाख लोकतंत्र का नगारा बजा लें अगर समाज के हर तबके तक समुचित न्याय नहीं पहुँच रही हो और सभी को अपने पक्ष रखने का फिर वो दोषी ही क्यों ना हो, का सामान्य अवसर नहीं मिल रहा हो तो उसे आप किसी भी कीमत पे लोकतांत्रिक नहीं कह सकते। शायद यहीं एक विशेष्ता हैं जो लोकतंत्र को बाकी सभी तंत्रों से अलग करती  हैं और जिसने इसे सार्वभौमिक्ता प्रदान की हैं। न्यायिक प्रक्रिया न तो किसी की आस्था पे केंद्रित हैं न ही किसी की भावना पर, ये सम्पूर्ण मानवता और इंशाफ का सामंजशय हैं जहाँ एक ओर मानवता को बचाने के लिए हर वो प्रयास किया जाता हैं कि किसी भी कीमत पे किसी  निर्दोष को सजा न मिले तो वहीँ दूसरी ओर दोषी को सजा के रूप में मृत्युंदंड तक का प्रावधान हैं ताकि समाज में ये संदेश जा सके कि मानवता की रक्षा और इंशाफ  के लिए न्यायालय जरुरत पड़ने पर दोषी के प्राण तक ले सकती हैं।

बदलते समय के साथ-साथ शासन ,प्रसाशन और न्यायिक प्रक्रिया का भी स्वरुप बदला हैं, जिसकी जरूरत भी थी। मृत्युदंड पे हम सभी के अपन अपनेे राय हो सकते हैं। नाहीं पक्ष में मत रखने वाले पूर्णतयः गलत हैं और नाहीं विपक्षी मत के समर्थक।जब तक ये प्रावधान न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा हैं आप इसे गलत नहीं करार सकते।

लेकिन पिछले कुछ दिनों से जो हुआ और जिस तरह से हुआ, उससे ये साफ़ लगता हैं न्यायिक प्रक्रिया को भी टी आर पी का एक साधन बना लिया  गया हैं।
कम से कम न्यायपालिका का मार्केटिंग तो नहीं ही होना चाहिये, सभी खबरों को एक ही थाली में परोसना मेरी समझ से उचित नहीं हैं।
और कम से भारत जैसे मुल्क में तो बिल्कुल ही नहीं जहाँ सहीमायने में लोकतंत्र ही न्यायालय की निष्पक्षता पर केंद्रित हैं।

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